Wednesday, July 30, 2008

रामराज्य में प्रकृति और पर्यावरण

रामराज्य में प्रकृति और पर्यावरण

श्री बालकृष्ण जी कुमावत

'पर्यावरण' दो शब्दों का संयोजन है - 'परि' तथा 'आवरण'। 'परि' का आशय चारों ओर तथा 'आवरण' का ढकना या आच्छादन करना है। आकाश, वायु, जल, अग्नि एवं पृथ्वी - इन पाँचों तत्वों की विशुद्धि और पवित्रता से संपूर्ण परिवेश परिशुद्ध हो जाता है और इनमें विकार आ जाने से वातावरण दूषित हो जाता है।

हमारी प्राचीन संस्कृति 'अरण्य-संस्कृति' या 'तपोवन-संस्कृति' के नाम से जानी जाती रही है, पर आज के विकासवाद से उसका रूप प्राय: अस्तित्वविहीन-सा हो रहा है। जिस प्रकार शरीर में वात-पित्त कफ का असंतुलन हमें रुग्ण कर देता है, उसी प्रकार भूमि, जल, वायु आदि में असंतुलन होने पर प्रत्येक जीव-जंतु, पेड़-पौधे और मानव पर उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। प्रदूषित पर्यावरण अनेक रोगों को जन्म देता हे। इसे नियति न समझकर मानव द्वारा प्रसूत विकृति कहना अधिक ठीक होगा। इसके लिए सचेष्ट रहने की आवश्यकता है।

'श्रीरामचरितमानस' में तुलसीदास जी ने इस बात पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के सिंहासन पर आसीन होते ही सर्वत्र हर्ष व्याप्त हो गया, सारे भय-शोक दूर हो गए एवं दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्ति मिल गई। इसका प्रमुख कारण यह है कि रामराज्य में किसी भी प्रकार का प्रदूषण नहीं था। इसीलिए कोई भी अल्पमृत्यु, रोग-पीड़ा से ग्रस्त नहीं था, सभी स्वस्थ, बुद्धिमान, साक्षर, गुणज्ञ, ज्ञानी तथा कृतज्ञ थे।

राम राज बैठे त्रैलोका।
हरषित भए गए सब सोका।।
बयस न कर काहू सन कोई।
राम प्रताप विषमता खोई।।
दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा।
सब सुंदर सब बिरुज सरीरा।।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।
नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी।
सब कृतज्ञ नहिं कपट सयानी।।
राम राज नभगेस सुनु
सचराचर जग माहिं।
काल कर्म सुभाव गुन कृत
दुख काहुहि नाहिं।।
(रा.च.मा. 7।20।7-8; 21।1, 5-6, 8; 21)

वाल्मीकि रामायण में श्रीभरत जी रामराज्य के विलक्षण प्रभाव का उल्लेख करते हुए कहते हैं, "राघव! आपके राज्य पर अभिषिक्त हुए एक मास से अधिक समय हो गया। तब से सभी लोग निरोग दिखाई देते हैं। बूढ़े प्राणियों के पास भी मृत्यु नहीं फटकती है। स्त्रियाँ बिना कष्ट के प्रसव करती हैं। सभी मनुष्यों के शरीर हृष्ट-पुष्ट दिखाई देते हैं। राजन! पुरवासियों में बड़ा हर्ष छा रहा है। मेघ अमृत के समान जल गिराते हुए समय पर वर्षा करते हैं। हवा ऐसी चलती है कि इसका स्पर्श शीतल एवं सुखद जान पड़ता है। राजन नगर तथा जनपद के लोग इस पुरी में कहते हैं कि हमारे लिए चिरकाल तक ऐसे ही प्रभावशाली राजा रहें।"

पाप से पापी की हानि ही नहीं होती अपितु वातावरण भी दूषित होता है, जिससे अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। रामराज्य में पाप का अस्तित्व नहीं है, इसलिए दु:ख लेशमात्र भी नहीं है। पर्यावरण की शुद्धि तथा उसके प्रबंधन के लिए रामराज्य में सभी आवश्यक व्यवस्थाएँ की जाती रहीं। वृक्षारोपण, बाग-बगीचे, फल-फूलवाले पौधे तथा सुगंधित वाटिका लगाने में सब लोग रुचि लेते थे। नगर के भीतर तथा बाहर का दृश्य मनोहारी था -

सुमन बाटिका सबहिं लगाईं।
बिबिध भाँति करि जतन बनाईं।।
लता ललित बहु जाति सुहाई।
फूलहिं सदा बसंत कि नाईं।।
(रा.च.मा. 7।28।1-2)

बापीं तड़ाग अनूप कूद मनोहरायत सोहहीं।
सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं।।
बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं।
आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं।।
रमानाथ जहं राजा सो पुर बरनि कि जाइ।
अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ।।
(रा.च.मा. 7।29।छ.29)

अर्थात सभी लोगों ने विविध प्रकार के फूलों की वाटिकाएँ अनेक प्रकार के यत्न करके लगा रखीं हैं। बहुत प्रकार की सुहावनी ललित बेलें सदा वसंत की भाँति फूला करती हैं। नगर की शोभा का जहाँ वर्णन नहीं किया जा सकता, वहाँ बाहर चारों ओर का दृश्य भी अत्यंत रमणीय है। रामराज्य में बावलियाँ और कूप जल से भरे रहते थे, जलस्तर भी काफ़ी ऊपर था। तालाब तथा कुओं की सीढ़ियाँ भी सुंदर और सुविधाजनक थीं। जल निर्मल था। अवधपुरी में सूर्य-कुंड, विद्या-कुंड, सीता-कुंड, हनुमान-कुंड, वसिष्ठ-कुंड, चक्रतीर्थ आदि तालाब थे, जो प्रदुषण से पूर्णत: मुक्त थे। नगर के बाहर- अशोक, संतानक, मंदार, पारिजात, चंदन, चंपक, प्रमोद, आम्र, पनस, कदंब एवं ताल-वृक्षों से संपन्न अनेक वन थे।

'गीतावली' में भी सुंदर वनों-उपवनों के मनोहारी दृश्यों का वर्णन मिलता है -

बन उपवन नव किसलय,
कुसुमित नाना रंग।
बोलत मधुर मुखर खग
पिकबर, गुंजत भृंग।।
(गीतावली उत्तरकांड 21।3)

अर्थात अयोध्या के वन-उपवनों में नवीन पत्ते और कई रंग के पुष्प खिलते रहते थे, चहचहाते हुए पपीहा और सुंदर कोकिल सुमधुर बोली बोलते हैं और भौरें गुंजार करते रहते थे।

रामराज्य में जल अत्यंत निर्मल एवं शुद्ध रहता था, दोषयुक्त नहीं। स्थान-स्थान पर पृथक-पृथक घाट बँधे हुए थे। कीचड़ कहीं भी नहीं होता था। पशुओं के उपयोग हेतु घाट नगर से दूर बने हुए थे और पानी भरने के घाट अलग थे, जहाँ कोई भी व्यक्ति स्नान नहीं करता था। नहाने के लिए राजघाट अलग से थे, जहाँ चारों वर्णों के लोग स्नान करते थे -

उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर।
बांधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर।।
दूरि फराक रुचिर सो घाटा।
जहं जल पिअहिं बाजि गज ठाटा।।
पनिघट परम मनोहर नाना।
तहां न पुरुष करहिं अस्नाना।।
(रा.च.मा. 7।28; 29।1-2)

रामराज्य में शीतल, मंद तथा सुगंधित वायु सदैव बहती रहती थी -

गुंजत मधुकर मुखर मनोहर।
मारुत त्रिबिध सदा बह सुंदर।।
(रा.च.मा. 7।28।3)

पक्षी-प्रेम रामराज्य में अद्वितीय था। पक्षी के पैदा होते ही उसका पालन-पोषण किया जाता था। बचपन से ही पालन करने से दोनों ओर प्रेम रहता था। बड़े होने पर पक्षी उड़ते तो थे किंतु कहीं जाते नहीं थे। पक्षियों को रामराज्य में पढ़ाया और सुसंस्कारित किया जाता था।

सुक सारिका पढ़ावहिं बालक।
कहहु राम रघुपति जनपालक।।
(रा.च.मा. 7।28।7)

रामराज्य की बाजार-व्यवस्था भी अतुलनीय थी। राजद्वार, गली, चौराहे और बाजार स्वच्छ, आकर्षक तथा दीप्तिमान रहते थे। विभिन्न वस्तुओं का व्यापार करनेवाले कुबेर के समान संपन्न थे। रामराज्य में वस्तुओं का मोलभाव नहीं होता था। सभी दुकानदार सत्यवादी एवं ईमानदार थे -

बाज़ार स्र्चिर न बनइ बरनत
बस्तु बिनु गथ पाइए।
(रा.च.मा. 7।28)

रामराज्य में तो यहाँ तक ध्यान रखा जाता था कि जो पौधे चरित्र-निर्माण में सहायक हैं, उनका रोपण अधिक किया जाना चाहिए। पर्यावरण-विशेषज्ञों तथा आयुर्वेदशास्त्र की मान्यता है कि तुलसी का पौधा जहाँ सभी प्रकार से स्वास्थ्य के लिए उपयोगी है वहाँ चरित्र-निर्माण में भी सहायक है। यही कारण है कि रामराज्य में ऋषि-मुनि नदियों के तथा तालाबों के किनारे तुलसी के पौधे लगाते थे -

तीर तीर तुलसिका सुहाई।
बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई।।
(रा.च.मा. 7।29।6)

रामराज्य में सब लोग सत्साहित्य का अनुशीलन करते थे। चरित्रवान और संस्कारवान थे। सबके घरों में सुखद वातावरण था और सभी लोग शासन से संतुष्ट थे। जहाँ राजा अपनी प्रजा का पालन पुत्रवत करता हो वहाँ का समाज निश्चित ही सदा प्रसन्न एवं समृद्ध रहता है। उन अवधपुरवासियों की सुख-संपदा का वर्णन हज़ार शेष जी भी नहीं कर सकते, जिनके राजा श्रीरामचंद्र जी हैं -

सब के गृह गृह होहिं पुराना।
रामचरित पावन बिधि नाना।
नर अस्र् नारि राम गुन गानहिं।
करहिं दिवस निसि जात न जानहिं।
अवधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा समाज।
सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहं नृप राम बिराज।।
(रा.च.मा. 7।26।7-8; 26)

इस प्रकार रामराज्य में किसी भी प्रकार का दूषित परिवेश नहीं था। राजा तथा प्रजा में परस्पर अटूट स्नेह, सम्मान और सामंजस्य था। मनुष्यों में जहाँ वैरभाव नहीं रहता वहाँ पशु-पक्षी भी अपने सहज वैरभाव को त्याग देते हैं। हाथी और सिंह एक साथ रहते हैं - परस्पर प्रेम रखते हैं। वन में पक्षियों के अनेक झुंड निर्भय होकर विचरण करते हैं। उन्हें शिकारी का भय नहीं रहता। गौएँ कामधेनु की तरह मनचाहा दूध देती हैं।

रामराज्य में पृथ्वी सदा खेती से हरी-भरी रहती थी। चंद्रमा उतनी ही शीतलता और सूर्य उतना ही ताप देते थे जितनी ज़रूरत होती थी। पर्वतों ने अनेक प्रकार की मणियों की खानें प्रकट कर दी थीं। सब नदियाँ श्रेष्ठ, शीतल, निर्मल, स्वादिष्ट और सुख देनेवाला जल बहाती थीं। जब जितनी ज़रूरत होती थी, मेघ उतना ही जल बरसाते थे -

फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन।
रहहिं एक संग गज पंचानन।।
खग मृग सहज बयरु बिसराई।
सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई।।
कूजहिं खग मृग नाना बृंदा।
अभय चरहिं बन करहिं अनंदा।।
लता बिटप मागें मधु चवहिं।
मनभावतो धेनु पय स्रवहीं।।
बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज।
मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र कें राज।।
(रा.च.मा. 7।23।१1-3, 5; 23)

रामराज्य का वर्णन करते हुए गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने सूत्ररूप में यह संकेत दिया है कि पर्यावरण-संतुलन तथा पर्यावरण-प्रबंधन में शासक और प्रजा का संयुक्त उत्तरदायित्व होता है। दोनों के परस्पर सहयोग, स्नेह, सम्मान, सौहार्द तथा सामंजस्य से ही समाज एवं राष्ट्र को दोषमुक्त किया जा सकता है। पर्यावरण-चेतना का शासक और प्रजा दोनों में पर्याप्त विकास होना चाहिए। राज्य की व्यवस्था में प्रजा का पूर्ण सहयोग हो और प्रजा की सुख-सुविधा का शासक पूरा-पूरा ध्यान रखे - यही रामराज्य का संदेश है।


Sunday, July 20, 2008

श्रीरामचरित मानस का विधिपूर्वक पारायण

पारायण-विधि


श्रीरामचरित मानस का विधिपूर्वक पाठ करने से पुर्व श्रीतुलसीदासजी, श्रीवाल्मीकिजी, श्रीशिवजी तथाश्रीहनुमानजी का आवाहन-पूजन करने के पश्चात् तीनों भाइयों सहित श्रीसीतारामजी का आवाहन, षोडशोपचार-पूजन और ध्यान करना चाहिये। तदन्तर पाठ का आरम्भ करना चाहियेः-

आवाहन मन्त्रः


तुलसीक नमस्तुभ्यमिहागच्छ शुचिव्रत।
नैर्ऋत्य उपविश्येदं पूजनं प्रतिगृह्यताम्।।१।।
तुलसीदासाय नमः


श्रीवाल्मीक नमस्तुभ्यमिहागच्छ शुभप्रद।
उत्तरपूर्वयोर्मध्ये तिष्ठ गृह्णीष्व मेऽर्चनम्।।२।।
वाल्मीकाय नमः


गौरीपते नमस्तुभ्यमिहागच्छ महेश्वर।
पूर्वदक्षिणयोर्मध्ये तिष्ठ पूजां गृहाण मे।।३।।
गौरीपतये नमः


श्रीलक्ष्मण नमस्तुभ्यमिहागच्छ सहप्रियः।
याम्यभागे समातिष्ठ पूजनं संगृहाण मे।।४।।
श्रीसपत्नीकाय लक्ष्मणाय नमः


श्रीशत्रुघ्न नमस्तुभ्यमिहागच्छ सहप्रियः।
पीठस्य पश्चिमे भागे पूजनं स्वीकुरुष्व मे।।५।।
श्रीसपत्नीकाय शत्रुघ्नाय नमः


श्रीभरत नमस्तुभ्यमिहागच्छ सहप्रियः।
पीठकस्योत्तरे भागे तिष्ठ पूजां गृहाण मे।।६।।
श्रीसपत्नीकाय भरताय नमः


श्रीहनुमन्नमस्तुभ्यमिहागच्छ कृपानिधे।
पूर्वभागे समातिष्ठ पूजनं स्वीकुरु प्रभो।।७।।
हनुमते नमः

अथ प्रधानपूजा कर्तव्या विधिपूर्वकम्।
पुष्पाञ्जलिं गृहीत्वा तु ध्यानं कुर्यात्परस्य च।।८।।

रक्ताम्भोजदलाभिरामनयनं पीताम्बरालंकृतं
श्यामांगं द्विभुजं प्रसन्नवदनं श्रीसीतया शोभितम्।
कारुण्यामृतसागरं प्रियगणैर्भ्रात्रादिभिर्भावितं
वन्दे विष्णुशिवादिसेव्यमनिशं भक्तेष्टसिद्धिप्रदम्।।९।।


आगच्छ जानकीनाथ जानक्या सह राघव।
गृहाण मम पूजां वायुपुत्रादिभिर्युतः।।१०।।

इत्यावाहनम्

सुवर्णरचितं राम दिव्यास्तरणशोभितम्।
आसनं हि मया दत्तं गृहाण मणिचित्रितम्।।११।।

इति षोडशोपचारैः पूजयेत्

अस्य श्रीमन्मानसरामायणश्रीरामचरितस्य श्रीशिवकाकभुशुण्डियाज्ञवल्क्यगोस्वामीतुलसीदासा ऋषयःश्रीसीतरामो देवता श्रीरामनाम बीजं भवरोगहरी भक्तिः शक्तिः मम नियन्त्रिताशेषविघ्नतयाश्रीसीतारामप्रीतिपूर्वकसकलमनोरथसिद्धयर्थं पाठे विनियोगः।

अथ आचमन

श्रीसीतारामाभ्यां नमः। श्रीरामचन्द्राय नमः।श्रीरामभद्राय नमः।


इति मन्त्रत्रितयेन आचमनं कुर्यात्। श्रीयुगलबीजमन्त्रेण प्राणायामं कुर्यात्।।

अथ करन्यासः

जग मंगल गुन ग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के।।
अगुंष्ठाभ्यां नमः।
राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि पापपुंज समुहाहीं।।
तर्जनीभ्यां नमः।
राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका।।
मध्यमाभ्यां नमः।
उमा दारु जोषित की नाईं। सबहि नचावत रामु गोसाईं।।
अनामिकाभ्यां नमः।
सन्मुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।
कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक।।
करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।

इति करन्यासः

अथ ह्रदयादिन्यासः

जग मंगल गुन ग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के।।
ह्रदयाय नमः।
राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि पापपुंज समुहाहीं।।
शिरसे स्वाहा।
राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका।।
शिखायै वषट्।
उमा दारु जोषित की नाईं। सबहि नचावत रामु गोसाईं।।
कवचाय हुम्
सन्मुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।
नेत्राभ्यां वौषट्
मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक।।
अस्त्राय फट इति ह्रदयादिन्यासः

अथ ध्यानम्

मामवलोकय पंकजलोचन। कृपा बिलोकनि सोच बिमोचन।।
नील तामरस स्याम काम अरि। ह्रदय कंज मकरंद मधुप हरि।।
जातुधान बरुथ बल भंजन। मुनि सज्जन रंजन अघ गंजन।।
भूसुर ससि नव बृंद बलाहक। असरन सरन दीन जन गाहक।।
भुजबल बिपुल भार महि खंडित। खर दूषन बिराध बध पंडित।।
रावनारि सुखरुप भूपबर। जय दसरथ कुल कुमुद सुधाकर।।
सुजस पुरान बिदित निगमागम। गावत सुर मुनि संत समागम।।
कारुनीक ब्यलीक मद खंडन। सब विधि कुसल कोसला मंडन।।
कलि मल मथन नाम ममताहन। तुलसिदास प्रभु पाहि प्रनत जन।।

इति ध्यानं

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बजरंग बाण का अमोघ विलक्षण प्रयोग

बजरंग बाण
भौतिक मनोकामनाओं की पुर्ति के लिये बजरंग बाण का अमोघ विलक्षण प्रयोग

अपने इष्ट कार्य की सिद्धि के लिए मंगल अथवा शनिवार का दिन चुन लें। हनुमानजी का एक चित्र या मूर्ति जपकरते समय सामने रख लें। ऊनी अथवा कुशासन बैठने के लिए प्रयोग करें। अनुष्ठान के लिये शुद्ध स्थान तथाशान्त वातावरण आवश्यक है। घर में यदि यह सुलभ हो तो कहीं एकान्त स्थान अथवा एकान्त में स्थितहनुमानजी के मन्दिर में प्रयोग करें।

हनुमान जी के अनुष्ठान मे अथवा पूजा आदि में दीपदान का विशेष महत्त्व होता है। पाँच अनाजों (गेहूँ, चावल, मूँग, उड़द और काले तिल) को अनुष्ठान से पूर्व एक-एक मुट्ठी प्रमाण में लेकर शुद्ध गंगाजल में भिगो दें। अनुष्ठान वालेदिन इन अनाजों को पीसकर उनका दीया बनाएँ। बत्ती के लिए अपनी लम्बाई के बराबर कलावे का एक तार लेंअथवा एक कच्चे सूत को लम्बाई के बराबर काटकर लाल रंग में रंग लें। इस धागे को पाँच बार मोड़ लें। इस प्रकारके धागे की बत्ती को सुगन्धित तिल के तेल में डालकर प्रयोग करें। समस्त पूजा काल में यह दिया जलता रहनाचाहिए। हनुमानजी के लिये गूगुल की धूनी की भी व्यवस्था रखें।

जप के प्रारम्भ में यह संकल्प अवश्य लें कि आपका कार्य जब भी होगा, हनुमानजी के निमित्त नियमित कुछ भीकरते रहेंगे। अब शुद्ध उच्चारण से हनुमान जी की छवि पर ध्यान केन्द्रित करके बजरंग बाण का जाप प्रारम्भकरें।श्रीराम से लेकर सिद्ध करैं हनुमानतक एक बैठक में ही इसकी एक माला जप करनी है।

गूगुल की सुगन्धि देकर जिस घर में बगरंग बाण का नियमित पाठ होता है, वहाँ दुर्भाग्य, दारिद्रय, भूत-प्रेत काप्रकोप और असाध्य शारीरिक कष्ट ही नहीं पाते। समयाभाव में जो व्यक्ति नित्य पाठ करने में असमर्थ हो, उन्हेंकम से कम प्रत्येक मंगलवार को यह जप अवश्य करना चाहिए।

बजरंग बाण ध्यान

श्रीराम

अतुलित बलधामं हेमशैलाभदेहं।
दनुज वन कृशानुं, ज्ञानिनामग्रगण्यम्।।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं।
रघुपति प्रियभक्तं वातजातं नमामि।।

दोहा
निश्चय प्रेम प्रतीति ते, विनय करैं सनमान।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान।।

चौपाई
जय हनुमन्त सन्त हितकारी। सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी।।
जन के काज विलम्ब कीजै। आतुर दौरि महा सुख दीजै।।


जैसे कूदि सिन्धु वहि पारा। सुरसा बदन पैठि विस्तारा।।
आगे जाय लंकिनी रोका। मारेहु लात गई सुर लोका।।


जाय विभीषण को सुख दीन्हा। सीता निरखि परम पद लीन्हा।।
बाग उजारि सिन्धु मंह बोरा। अति आतुर यम कातर तोरा।।


अक्षय कुमार को मारि संहारा। लूम लपेटि लंक को जारा।।
लाह समान लंक जरि गई। जै जै धुनि सुर पुर में भई।।


अब विलंब केहि कारण स्वामी। कृपा करहु प्रभु अन्तर्यामी।।
जय जय लक्ष्मण प्राण के दाता। आतुर होई दुख करहु निपाता।।


जै गिरधर जै जै सुख सागर। सुर समूह समरथ भट नागर।।
हनु-हनु-हनु हनुमंत हठीले। वैरहिं मारू बज्र सम कीलै।।


गदा बज्र तै बैरिहीं मारौ। महाराज निज दास उबारों।।
सुनि हंकार हुंकार दै धावो। बज्र गदा हनि विलम्ब लावो।।


ह्रीं ह्रीं ह्रीं हनुमंत कपीसा। हुँ हुँ हुँ हनु अरि उर शीसा।।
सत्य होहु हरि सत्य पाय कै। राम दुत धरू मारू धाई कै।।


जै हनुमन्त अनन्त अगाधा। दुःख पावत जन केहि अपराधा।।
पूजा जप तप नेम अचारा। नहिं जानत है दास तुम्हारा।।


वन उपवन जल-थल गृह माहीं। तुम्हरे बल हम डरपत नाहीं।।
पाँय परौं कर जोरि मनावौं। अपने काज लागि गुण गावौं।।


जै अंजनी कुमार बलवन्ता। शंकर स्वयं वीर हनुमंता।।
बदन कराल दनुज कुल घालक। भूत पिशाच प्रेत उर शालक।।


भूत प्रेत पिशाच निशाचर। अग्नि बैताल वीर मारी मर।।
इन्हहिं मारू, तोंहि शमथ रामकी। राखु नाथ मर्याद नाम की।।


जनक सुता पति दास कहाओ। ताकी शपथ विलम्ब लाओ।।
जय जय जय ध्वनि होत अकाशा। सुमिरत होत सुसह दुःख नाशा।।


उठु-उठु चल तोहि राम दुहाई। पाँय परौं कर जोरि मनाई।।
चं चं चं चं चपल चलन्ता। हनु हनु हनु हनु हनु हनुमंता।।


हं हं हांक देत कपि चंचल। सं सं सहमि पराने खल दल।।
अपने जन को कस उबारौ। सुमिरत होत आनन्द हमारौ।।


ताते विनती करौं पुकारी। हरहु सकल दुःख विपति हमारी।।
ऐसौ बल प्रभाव प्रभु तोरा। कस हरहु दुःख संकट मोरा।।


हे बजरंग, बाण सम धावौ। मेटि सकल दुःख दरस दिखावौ।।
हे कपिराज काज कब ऐहौ। अवसर चूकि अन्त पछतैहौ।।


जन की लाज जात ऐहि बारा। धावहु हे कपि पवन कुमारा।।
जयति जयति जै जै हनुमाना। जयति जयति गुण ज्ञान निधाना।।


जयति जयति जै जै कपिराई। जयति जयति जै जै सुखदाई।।
जयति जयति जै राम पियारे। जयति जयति जै सिया दुलारे।।


जयति जयति मुद मंगलदाता। जयति जयति त्रिभुवन विख्याता।।
ऐहि प्रकार गावत गुण शेषा। पावत पार नहीं लवलेषा।।


राम रूप सर्वत्र समाना। देखत रहत सदा हर्षाना।।
विधि शारदा सहित दिनराती। गावत कपि के गुन बहु भाँति।।


तुम सम नहीं जगत बलवाना। करि विचार देखउं विधि नाना।।
यह जिय जानि शरण तब आई। ताते विनय करौं चित लाई।।


सुनि कपि आरत वचन हमारे। मेटहु सकल दुःख भ्रम भारे।।
एहि प्रकार विनती कपि केरी। जो जन करै लहै सुख ढेरी।।


याके पढ़त वीर हनुमाना। धावत बाण तुल्य बनवाना।।
मेटत आए दुःख क्षण माहिं। दै दर्शन रघुपति ढिग जाहीं।।


पाठ करै बजरंग बाण की। हनुमत रक्षा करै प्राण की।।
डीठ, मूठ, टोनादिक नासै। परकृत यंत्र मंत्र नहीं त्रासे।।


भैरवादि सुर करै मिताई। आयुस मानि करै सेवकाई।।
प्रण कर पाठ करें मन लाई। अल्प-मृत्यु ग्रह दोष नसाई।।


आवृत ग्यारह प्रतिदिन जापै। ताकी छाँह काल नहिं चापै।।
दै गूगुल की धूप हमेशा। करै पाठ तन मिटै कलेषा।।


यह बजरंग बाण जेहि मारे। ताहि कहौ फिर कौन उबारे।।
शत्रु समूह मिटै सब आपै। देखत ताहि सुरासुर काँपै।।
तेज प्रताप बुद्धि अधिकाई। रहै सदा कपिराज सहाई।।

दोहा
प्रेम प्रतीतिहिं कपि भजै। सदा धरैं उर ध्यान।।
तेहि के कारज तुरत ही, सिद्ध करैं हनुमान।।

मानस के सिद्ध स्तोत्रों के अनुभूत प्रयोग

१॰ ऐश्वर्य प्राप्ति
माता सीता की स्तुतिका नित्य श्रद्धा-विश्वासपूर्वक पाठ करें।

उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्।।” (बालकाण्ड, श्लो॰ )”

अर्थः- उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने वाली, क्लेशों की हरने वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणों की करने वालीश्रीरामचन्द्र की प्रियतमा श्रीसीता को मैं नमस्कार करता हूँ।।

२॰ दुःख-नाश
भगवान् राम की स्तुतिका नित्य पाठ करें।

यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्।।” (बालकाण्ड, श्लो॰ )

अर्थः- सारा विश्व जिनकी माया के वश में है और ब्रह्मादि देवता एवं असुर भी जिनकी माया के वश-वर्ती हैं। यह सबसत्य जगत् जिनकी सत्ता से ही भासमान है, जैसे कि रस्सी में सर्प की प्रतीति होती है। भव-सागर के तरने कीइच्छा करनेवालों के लिये जिनके चरण निश्चय ही एक-मात्र प्लव-रुप हैं, जो सम्पूर्ण कारणों से परे हैं, उन समर्थ, दुःख हरने वाले, श्रीराम है नाम जिनका, मैं उनकी वन्दना करता हूँ।

३॰ सर्व-रक्षा
भगवान् शिव की स्तुतिका नित्य पाठ करें।

यस्याङ्के विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके
भाले बालविधुर्गले गरलं यस्योरसि व्यालराट,
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा शर्वः
सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु माम ||” (अयोध्याकाण्ड, श्लो॰१)

अर्थः- जिनकी गोद में हिमाचल-सुता पार्वतीजी, मस्तक पर गंगाजी, ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा, कण्ठ मेंहलाहल विष और वक्षःस्थल पर सर्पराज शेषजी सुशोभित हैं, वे भस्म से विभूषित, देवताओं में श्रेष्ठ, सर्वेश्वर, संहार-कर्त्ता, सर्व-व्यापक, कल्याण-रुप, चन्द्रमा के समान शुभ्र-वर्ण श्रीशंकरजी सदा मेरी रक्षा करें।

४॰ सुखमय पारिवारिक जीवन
श्रीसीता जी के सहित भगवान् राम की स्तुतिका नित्य पाठ करें।

नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम,
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम ||” (अयोध्याकाण्ड, श्लो॰ )

अर्थः- नीले कमल के समान श्याम और कोमल जिनके अंग हैं, श्रीसीताजी जिनके वाम-भाग में विराजमान हैं औरजिनके हाथों में (क्रमशः) अमोघ बाण और सुन्दर धनुष है, उन रघुवंश के स्वामी श्रीरामचन्द्रजी को मैं नमस्कारकरता हूँ।।

५॰ सर्वोच्च पद प्राप्ति
श्री अत्रि मुनि द्वाराश्रीराम-स्तुतिका नित्य पाठ करें।
छंदः-
नमामि भक्त वत्सलं कृपालु शील कोमलं
भजामि ते पदांबुजं अकामिनां स्वधामदं
निकाम श्याम सुंदरं भवाम्बुनाथ मंदरं
प्रफुल्ल कंज लोचनं मदादि दोष मोचनं
प्रलंब बाहु विक्रमं प्रभोऽप्रमेय वैभवं
निषंग चाप सायकं धरं त्रिलोक नायकं
दिनेश वंश मंडनं महेश चाप खंडनं
मुनींद्र संत रंजनं सुरारि वृंद भंजनं
मनोज वैरि वंदितं अजादि देव सेवितं
विशुद्ध बोध विग्रहं समस्त दूषणापहं
नमामि इंदिरा पतिं सुखाकरं सतां गतिं
भजे सशक्ति सानुजं शची पतिं प्रियानुजं
त्वदंघ्रि मूल ये नराः भजंति हीन मत्सरा
पतंति नो भवार्णवे वितर्क वीचि संकुले
विविक्त वासिनः सदा भजंति मुक्तये मुदा
निरस्य इंद्रियादिकं प्रयांति ते गतिं स्वकं
तमेकमभ्दुतं प्रभुं निरीहमीश्वरं विभुं
जगद्गुरुं शाश्वतं तुरीयमेव केवलं
भजामि भाव वल्लभं कुयोगिनां सुदुर्लभं
स्वभक्त कल्प पादपं समं सुसेव्यमन्वहं
अनूप रूप भूपतिं नतोऽहमुर्विजा पतिं
प्रसीद मे नमामि ते पदाब्ज भक्ति देहि मे
पठंति ये स्तवं इदं नरादरेण ते पदं
व्रजंति नात्र संशयं त्वदीय भक्ति संयुता ” (अरण्यकाण्ड)

मानस-पीयूषके अनुसार यहरामचरितमानसकी नवीं स्तुति है और नक्षत्रों में नवाँ नक्षत्र अश्लेषा है। अतःजीवन में जिनको सर्वोच्च आसन पर जाने की कामना हो, वे इस स्तोत्र को भगवान् श्रीराम के चित्र या मूर्ति केसामने बैठकर नित्य पढ़ा करें। वे अवश्य ही अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी कर लेंगे।

६॰ प्रतियोगिता में सफलता-प्राप्ति
श्री सुतीक्ष्ण मुनि द्वारा श्रीराम-स्तुति का नित्य पाठ करें।

श्याम तामरस दाम शरीरं जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं
पाणि चाप शर कटि तूणीरं नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं ॥१॥
मोह विपिन घन दहन कृशानुः संत सरोरुह कानन भानुः
निशिचर करि वरूथ मृगराजः त्रातु सदा नो भव खग बाजः ॥२॥
अरुण नयन राजीव सुवेशं सीता नयन चकोर निशेशं
हर ह्रदि मानस बाल मरालं नौमि राम उर बाहु विशालं ॥३॥
संशय सर्प ग्रसन उरगादः शमन सुकर्कश तर्क विषादः
भव भंजन रंजन सुर यूथः त्रातु सदा नो कृपा वरूथः ॥४॥
निर्गुण सगुण विषम सम रूपं ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं
अमलमखिलमनवद्यमपारं नौमि राम भंजन महि भारं ॥५॥
भक्त कल्पपादप आरामः तर्जन क्रोध लोभ मद कामः
अति नागर भव सागर सेतुः त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः ॥६॥
अतुलित भुज प्रताप बल धामः कलि मल विपुल विभंजन नामः
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः संतत शं तनोतु मम रामः ॥७॥” (अरण्यकाण्ड)

विशेषः
संशय-सर्प-ग्रसन-उरगादः, शमन-सुकर्कश-तर्क-विषादः।
भव-भञ्जन रञ्जन-सुर-यूथः, त्रातु सदा मे कृपा-वरुथः।।
उपर्युक्त श्लोक अमोघ फल-दाता है। किसी भी प्रतियोगिता के साक्षात्कार में सफलता सुनिश्चित है।

७॰ सर्व अभिलाषा-पूर्ति
श्रीहनुमान जी कि स्तुतिका नित्य पाठ करें।

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।” (सुन्दरकाण्ड, श्लो॰३)

८॰ सर्व-संकट-निवारण
रुद्राष्टकका नित्य पाठ करें।

श्रीरुद्राष्टकम्

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम्
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् १॥

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्
करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोऽहम् २॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम्
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ३॥

चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ४॥

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम्
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ५॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी
चिदानन्द संदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ६॥

यावत् उमानाथ पादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम्
तावत् सुखं शान्ति सन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ७॥

जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम्
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ८॥

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति

इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं संपूर्णम्
विशेषः- उक्तरुद्राष्टकको स्नानोपरान्त भीगे कपड़े सहित शिवजी के सामने सस्वर पाठ करने से किसी भी प्रकारका शाप या संकट कट जाता है। यदि भीगे कपड़े सहित पाठ की सुविधा हो, तो घर पर या शिव-मन्दिर में भीतीन बार, पाचँ बार, आठ बार पाठ करके मनोवाञ्छित फल पाया जा सकता है। यह सिद्ध प्रयोग है। विशेषकरनाग-पञ्चमीपर रुद्राष्टक का पाठ विशेष फलदायी है।

Saturday, July 19, 2008

श्री रामचरित मानस के सिद्ध मन्त्र

नियम

मानस के दोहे-चौपाईयों को सिद्ध करने का विधान यह है कि किसी भी शुभ दिन की रात्रि को दस बजे के बादअष्टांग हवन के द्वारा मन्त्र सिद्ध करना चाहिये। फिर जिस कार्य के लिये मन्त्र-जप की आवश्यकता हो, उसके लियेनित्य जप करना चाहिये। वाराणसी में भगवान् शंकरजी ने मानस की चौपाइयों को मन्त्र-शक्ति प्रदान कीहै-इसलिये वाराणसी की ओर मुख करके शंकरजी को साक्षी बनाकर श्रद्धा से जप करना चाहिये।

अष्टांग हवन सामग्री

१॰ चन्दन का बुरादा, २॰ तिल, ३॰ शुद्ध घी, ४॰ चीनी, ५॰ अगर, ६॰ तगर, ७॰ कपूर, ८॰ शुद्ध केसर, ९॰ नागरमोथा, १०॰पञ्चमेवा, ११॰ जौ और १२॰ चावल।

जानने की बातें-

जिस उद्देश्य के लिये जो चौपाई, दोहा या सोरठा जप करना बताया गया है, उसको सिद्ध करने के लिये एक दिनहवन की सामग्री से उसके द्वारा (चौपाई, दोहा या सोरठा) १०८ बार हवन करना चाहिये। यह हवन केवल एक दिनकरना है। मामूली शुद्ध मिट्टी की वेदी बनाकर उस पर अग्नि रखकर उसमें आहुति दे देनी चाहिये। प्रत्येक आहुतिमें चौपाई आदि के अन्त मेंस्वाहाबोल देना चाहिये।
प्रत्येक आहुति लगभग पौन तोले की (सब चीजें मिलाकर) होनी चाहिये। इस हिसाब से १०८ आहुति के लिये एकसेर (८० तोला) सामग्री बना लेनी चाहिये। कोई चीज कम-ज्यादा हो तो कोई आपत्ति नहीं। पञ्चमेवा में पिश्ता, बादाम, किशमिश (द्राक्षा), अखरोट और काजू ले सकते हैं। इनमें से कोई चीज मिले तो उसके बदले नौजा यामिश्री मिला सकते हैं। केसर शुद्ध आने भर ही डालने से काम चल जायेगा।
हवन करते समय माला रखने की आवश्यकता १०८ की संख्या गिनने के लिये है। बैठने के लिये आसन ऊन का याकुश का होना चाहिये। सूती कपड़े का हो तो वह धोया हुआ पवित्र होना चाहिये।
मन्त्र सिद्ध करने के लिये यदि लंकाकाण्ड की चौपाई या दोहा हो तो उसे शनिवार को हवन करके करना चाहिये।दूसरे काण्डों के चौपाई-दोहे किसी भी दिन हवन करके सिद्ध किये जा सकते हैं।
सिद्ध की हुई रक्षा-रेखा की चौपाई एक बार बोलकर जहाँ बैठे हों, वहाँ अपने आसन के चारों ओर चौकोर रेखा जलया कोयले से खींच लेनी चाहिये। फिर उस चौपाई को भी ऊपर लिखे अनुसार १०८ आहुतियाँ देकर सिद्ध करनाचाहिये। रक्षा-रेखा भी खींची जाये तो भी आपत्ति नहीं है। दूसरे काम के लिये दूसरा मन्त्र सिद्ध करना हो तो उसकेलिये अलग हवन करके करना होगा।
एक दिन हवन करने से वह मन्त्र सिद्ध हो गया। इसके बाद जब तक कार्य सफल हो, तब तक उस मन्त्र (चौपाई, दोहा) आदि का प्रतिदिन कम-से-कम १०८ बार प्रातःकाल या रात्रि को, जब सुविधा हो, जप करते रहना चाहिये।
कोई दो-तीन कार्यों के लिये दो-तीन चौपाइयों का अनुष्ठान एक साथ करना चाहें तो कर सकते हैं। पर उन चौपाइयोंको पहले अलग-अलग हवन करके सिद्ध कर लेना चाहिये।

१॰ विपत्ति-नाश के लिये
राजिव नयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भंजन सुखदायक।।


२॰ संकट-नाश के लिये
जौं प्रभु दीन दयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा।।
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।


३॰ कठिन क्लेश नाश के लिये
हरन कठिन कलि कलुष कलेसू। महामोह निसि दलन दिनेसू॥


४॰ विघ्न शांति के लिये
सकल विघ्न व्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥


५॰ खेद नाश के लिये
जब तें राम ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥


६॰ चिन्ता की समाप्ति के लिये
जय रघुवंश बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृशानू॥


७॰ विविध रोगों तथा उपद्रवों की शान्ति के लिये
दैहिक दैविक भौतिक तापा।राम राज काहूहिं नहि ब्यापा॥


८॰ मस्तिष्क की पीड़ा दूर करने के लिये
हनूमान अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे।।


९॰ विष नाश के लिये
नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।


१०॰ अकाल मृत्यु निवारण के लिये
नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहि बाट।।


११॰ सभी तरह की आपत्ति के विनाश के लिये / भूत भगाने के लिये
प्रनवउँ पवन कुमार,खल बन पावक ग्यान घन।
जासु ह्रदयँ आगार, बसहिं राम सर चाप धर॥


१२॰ नजर झाड़ने के लिये
स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी।।


१३॰ खोयी हुई वस्तु पुनः प्राप्त करने के लिए
गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।।


१४॰ जीविका प्राप्ति केलिये
बिस्व भरण पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत जस होई।।


१५॰ दरिद्रता मिटाने के लिये
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद धन दारिद दवारि के।।


१६॰ लक्ष्मी प्राप्ति के लिये
जिमि सरिता सागर महुँ जाही। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।
तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।।


१७॰ पुत्र प्राप्ति के लिये
प्रेम मगन कौसल्या निसिदिन जात जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।


१८॰ सम्पत्ति की प्राप्ति के लिये
जे सकाम नर सुनहि जे गावहि।सुख संपत्ति नाना विधि पावहि।।


१९॰ ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने के लिये
साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ।।


२०॰ सर्व-सुख-प्राप्ति के लिये
सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई।।


२१॰ मनोरथ-सिद्धि के लिये
भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि।।


२२॰ कुशल-क्षेम के लिये
भुवन चारिदस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू।।


२३॰ मुकदमा जीतने के लिये
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।


२४॰ शत्रु के सामने जाने के लिये
कर सारंग साजि कटि भाथा। अरिदल दलन चले रघुनाथा॥


२५॰ शत्रु को मित्र बनाने के लिये
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।।


२६॰ शत्रुतानाश के लिये
बयरु कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई॥


२७॰ वार्तालाप में सफ़लता के लिये
तेहि अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥


२८॰ विवाह के लिये
तब जनक पाइ वशिष्ठ आयसु ब्याह साजि सँवारि कै।
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला, कुँअरि लई हँकारि कै॥


२९॰ यात्रा सफ़ल होने के लिये
प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदयँ राखि कोसलपुर राजा॥


३०॰ परीक्षा / शिक्षा की सफ़लता के लिये
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥


३१॰ आकर्षण के लिये
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ कछु संदेहू॥


३२॰ स्नान से पुण्य-लाभ के लिये
सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग।।


३३॰ निन्दा की निवृत्ति के लिये
राम कृपाँ अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी।।


३४॰ विद्या प्राप्ति के लिये
गुरु गृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल विद्या सब आई॥


३५॰ उत्सव होने के लिये
सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।
तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु।।


३६॰ यज्ञोपवीत धारण करके उसे सुरक्षित रखने के लिये
जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग।।


३७॰ प्रेम बढाने के लिये
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥


३८॰ कातर की रक्षा के लिये
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहिं अवसर सहाय सोइ होऊ।।


३९॰ भगवत्स्मरण करते हुए आराम से मरने के लिये
रामचरन दृढ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग
सुमन माल जिमि कंठ तें गिरत जानइ नाग


४०॰ विचार शुद्ध करने के लिये
ताके जुग पद कमल मनाउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ।।


४१॰ संशय-निवृत्ति के लिये
राम कथा सुंदर करतारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी।।


४२॰ ईश्वर से अपराध क्षमा कराने के लिये
अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता।।


४३॰ विरक्ति के लिये
भरत चरित करि नेमु तुलसी जे सादर सुनहिं।
सीय राम पद प्रेमु अवसि होइ भव रस बिरति।।


४४॰ ज्ञान-प्राप्ति के लिये
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।


४५॰ भक्ति की प्राप्ति के लिये
भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपासिंधु सुखधाम।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम।।


४६॰ श्रीहनुमान् जी को प्रसन्न करने के लिये
सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपनें बस करि राखे रामू।।


४७॰ मोक्ष-प्राप्ति के लिये
सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा। काल सर्प जनु चले सपच्छा।।


४८॰ श्री सीताराम के दर्शन के लिये
नील सरोरुह नील मनि नील नीलधर श्याम
लाजहि तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम


४९॰ श्रीजानकीजी के दर्शन के लिये
जनकसुता जगजननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की।।


५०॰ श्रीरामचन्द्रजी को वश में करने के लिये
केहरि कटि पट पीतधर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुल भूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान।।


५१॰ सहज स्वरुप दर्शन के लिये
भगत बछल प्रभु कृपा निधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना।।


(कल्याण से साभार उद्धृत)